पशुओं में गल घोटू रोग: कारण, लक्षण, बचाव एवं उपचार

भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ कृषि के साथ-साथ पशुओं पर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है। पशुपालन, भारतीय कृषि का एक अभिन्न अंग है, और पशुओं की उचित देखभाल कृषि की सफलता के लिए आवश्यक है।

खासकर वर्षा ऋतु में पशुओं में होने वाला गलघोंटू (Galghontu), जिसे हेमोरेजिक सेप्टीसीमिया (Haemorrhagic Septicaemia – HS) भी कहते हैं, एक घातक संक्रामक रोग है। यह रोग जीवाणु (Bacteria) द्वारा फैलता है। यह जीवाणु छोटा, ग्राम-नगेटिव, और नॉन-मोटाईल (non-motile) होता है।

इस रोग को स्थानीय और वैज्ञानिक भाषा में कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे डकहा, गलघोटू, एच. एस. (H.S.), शिपिंग फीवर (Shipping Fever), पशुओं का गला घोंटना

गलघोंटू (Haemorrhagic Septicaemia – HS) रोग

Haemorrhagic Septicaemia

रोग के लक्षण:

गलघोंटू रोग होने पर पशुओं में निम्नलिखित गंभीर लक्षण दिखाई देते हैं:

  • तेज ज्वर (बुखार): पशु को अचानक तेज बुखार हो जाता है।
  • मुंह और गले पर सूजन: मुंह और गले के निचले हिस्से पर शोथ (inflammation) युक्त सूजन आ जाती है, जो बहुत दर्दनाक होती है।
  • आमाशय और आंत में पीड़ा: पशु के आमाशय (पेट) और आंतों में तेज दर्द होता है।
  • पेट फूलना और पतला दस्त: इस पीड़ा के कारण पशु का पेट फूल जाता है और उसे पतला दस्त (डायरिया) आता है।
  • स्त्राव: मुंह से लार और नाक से गाढ़ा स्त्राव (discharge) निकलता है।
  • श्वास लेने में कष्ट: पशु को कष्टप्रद श्वास-प्रश्वास (difficulty breathing) होती है।
  • अत्यधिक बेचैनी: पशु अत्यधिक बैचेन दिखाई देता है।
  • श्लैष्मिक झिल्लियों का लाल होना: आँखें और शरीर की सभी श्लैष्मिक झिल्लियाँ (mucous membranes) सूजकर लाल हो जाती हैं
  • अचानक उत्पन्न होना: यह रोग वर्षाकाल में अचानक उत्पन्न होता है, वैसे यह कभी भी हो सकता है।
  • अधिक संक्रमण वाले स्थान: खासकर उन स्थानों में इसका संक्रमण कुछ अधिक होता है जहाँ जल भरा रहता है
  • प्रभावित पशु: यह रोग जुगाली करने वाले पशुओं और विशेषकर भैंस पर अधिक हमला करता है।
  • मृत्यु दर: इस रोग में 80-90% तक पशुओं की अकाल मृत्यु हो जाती है। इस रोग की भयानकता इतनी अधिक होती है कि चिकित्सा और बचाव के बावजूद भी गाँव के गाँव साफ हो जाते हैं

रोग के कारण:

  • यह रोग जीवाणु पाश्चुरेला बोवीसेप्टिका (Pasteurella boviseptica) के द्वारा उत्पन्न होता है।
  • इसका संक्रमण मुंह और गले के भीतर चारा, दाना, पानी के द्वारा शरीर में जाता है।
  • शरीर के अंदर रक्त प्रणाली में रहकर जीवाणु अपना विकास करता है और रोग को फैलाता है।
  • इस रोग को फैलाने में अचानक खराब मौसम, अस्वस्थ वातावरण, पशु की थकान एवं कुपोषण तथा वातावरण की आर्द्रता विशेष रूप से सहायक होते हैं।

रोग फैलने का ढंग:

  • आहार द्वारा: जब कोई रोगग्रस्त पशु चारा चरने जाता है तो वह वहाँ की घास को दूषित कर देता है। स्वस्थ पशु द्वारा उस दूषित घास को खाने पर संक्रमण फैलता है।
  • श्वासनालिका द्वारा (वायु जनित): इस रोग के जीवाणु वायु से पशु के श्वास के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
  • परजीवी द्वारा (कीटों से): यह रोग स्वस्थ पशुओं में मक्खियों और मच्छरों द्वारा फैलता है। ये परजीवी रोगग्रस्त पशु का खून चूसकर जब स्वस्थ पशु के शरीर को काटते हैं, तो रोग के जीवाणु उनके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और पशु प्रभावित हो जाते हैं।

उद्भवन अवधि (Incubation Period):

  • रोग के लक्षण प्रायः 1-3 दिन में प्रकट हो जाते हैं।

रोग की अवस्थाएं (लक्षणों के आधार पर):

रोगग्रस्त पशु में तीन मुख्य अवस्थाएं मिलती हैं, जिनके अलग-अलग लक्षण होते हैं:

  1. तीव्र रक्त पूतित अवस्था (Peracute Septicaemic Stage):
    • इस अवस्था में, पशु चारा चरकर आता है और कान नीचे की ओर लटका कर बगैर जुगाली किए एक स्थान पर सुस्त खड़ा हो जाता है।
    • पशु का तापमान एकाएक 104-108° फारेनहाइट (40°-42° सेल्सियस) तक पहुँच जाता है
    • पशु खाना बंद कर देता है, पेट में ऐंठन होती है और पतला दस्त आता है।
    • दाँत पीसना, दस्त में रक्त या म्यूकस का मिला होना, और पेट फूल जाना इस अवस्था के लक्षण हैं।
    • पशु में अतिशय दुर्बलता आ जाती है।
  2. त्वचा अवस्था (Cutaneous Stage):
    • इस अवस्था में लक्षण प्रायः पशु की त्वचा से संबंधित होते हैं।
    • पशु को तेज बुखार होता है।
    • नीचे जबड़े के बीच सूजन, जीभ का सूजकर बाहर निकल आना और मुंह से लार का बहना प्रमुख लक्षण हैं।
    • पशु को कष्टप्रद श्वास-प्रश्वास, अत्यधिक बेचैनी होती है।
    • आंखें एवं शरीर की सभी श्लैष्मिक झिल्लियाँ सूजकर लाल हो जाती हैं।
  3. फुफ्फुसीय अवस्था (Pulmonary Stage):
    • इस अवस्था में पशु की श्वास गहरी एवं जल्दी-जल्दी आने लगती है
    • श्वास के साथ धसका (जोर से खाँसना) होता है।
    • पशु की नाक से सफेद एवं लाल रंग का गाढ़ा, बदबूदार स्त्राव निकलना प्रारंभ हो जाता है, जो कभी-कभी लटका हुआ दिखाई देता है।
    • सांस में घड़घड़ाहट अथवा धुर्र-धुर्र की आवाज दूर से सुना जा सकता है
    • इस अवस्था में सूजन सख्त होती है और छूने पर गरम महसूस होती है, लेकिन दबाने पर दुखाती नहीं। पशु का मुंह खुला रहता है।

रोग निदान (Diagnosis):

  • उपरोक्त लक्षणों को देखकर रोग का निदान आसानी से हो जाता है।
  • पशु का धुर्र-धुर्र करना इस रोग का प्रधान निदानात्मक लक्षण है।
  • माइक्रोस्कोपिक परीक्षण (Microscopic examination) में रोगी के रक्त अथवा शारीरिक स्त्रावों को स्लाइड पर रखकर जाँच करने पर द्विध्रुवी जीवाणु (bipolar bacteria) देखे जाते हैं।
  • यह रोग बहुत घातक एवं जानलेवा होता है।

रोग की गंभीरता:

  • कभी-कभी जबड़े में सूजन के ऊपरी भाग में एक या दोनों तरफ एक हल्की सी बड़ी सूजन आ जाती है, जो धीरे-धीरे बढ़ती जाती है।
  • सूजन के बढ़ने पर पशु की पूरी थूथन ही शोथ युक्त हो जाती है, जो पत्थर जैसी कड़ी होती है।
  • सूजन के कारण नाक बंद होने लगते हैं और अंत में श्वास लेना-छोड़ना बंद हो जाता है।

चिकित्सा:

  • पोटेशियम परमैंगनेट: पोटेशियम परमैंगनेट को पानी में मिलाकर आठ घंटे के अंतराल पर पशु को पिलाएँ।
  • कार्बोलिक एसिड: बीमारी का जोर कम करने के लिए कार्बोलिक एसिड को पानी में मिलाकर पिलाएँ।
  • एविल इंजेक्शन: एविल 10 मि.ली. की मात्रा पशु के मांस में लगाएँ।
  • डाइक्रिस्टासीन इंजेक्शन: डाइक्रिस्टासीन के 5 डोज मांस में लगाएँ
  • सल्फाडामिडीन सोडियम इंजेक्शन: पशुपालक अपने रोगी पशु को सल्फाडामिडीन सोडियम इंजेक्शन की मात्रा पहला दिन डबल डोज दें, और अगले दिन से हाफ डोज देना होगा। यदि यह चिकित्सा 4-5 दिन लगातार कराई जाए तो रोगी के ठीक होने की संभावना रहती है।

घरेलू उपचार:

  • पौष्टिक आहार: पशुपालक, खाने के लिए पशु को जौ का दलिया एवं प्रचुर मात्रा में पानी दें।
  • सूजन की सिकाई: सहायक चिकित्सा के रूप में सूजन की तीव्र सेंक दें।

रोकथाम (सबसे महत्वपूर्ण):

  • इस रोग को रोकने के लिए, पशुपालक वर्षा ऋतु के शुरू होने से पहले और बाद में एच.एस. ऑयल एडजुवेंट वैक्सीन (H.S. Oil Adjuvant Vaccine) 3 मि.ली./सबक्यूटेनियस विधि से अवश्य लगवाएँ।
  • बहुत हद तक टीकाकरण कराकर पशुपालक इस रोग से होने वाली अकाल मृत्यु से पशु को बचा सकते हैं।

आवश्यक निर्देश एवं सुझाव:

  • पृथक्करण: रोगग्रस्त पशुओं को अन्य स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग रखें
  • टीकाकरण: स्वस्थ पशुओं को बरसात शुरू होने के पहले इस रोग का एच.एस. वैक्सीन अवश्य लगवा लेना चाहिए।
  • मृत पशुओं का निपटान: रोग से मरे हुए पशुओं को 6 फुट गहरा जमीन में गाड़ देना चाहिए ताकि संक्रमण न फैले।
  • चरागाह प्रबंधन: रोगग्रस्त चरागाह में स्वस्थ पशुओं को चरने नहीं भेजना चाहिए
  • आहार और पानी:
    • पशुओं को बरसाती घास नहीं खिलाएँ
    • गड्डों तथा तालाब-पोखरों का पानी नहीं पिलाना चाहिए, क्योंकि ये दूषित हो सकते हैं।
  • रहने का स्थान:
    • रोगी पशु को स्वच्छ तथा खुली हवा में रखना चाहिए।
    • पशुओं के रहने का स्थान साफ होना चाहिए
  • पौष्टिक आहार: पशुओं का आहार पौष्टिक तथा स्वादिष्ट होना चाहिए।

निष्कर्ष:

ज्यादा बारिश वाले इलाकों में इस बीमारी का खतरा ज्यादा रहता है। यह बीमारी पशुओं में चुपके से फैलकर उनकी अकाल मृत्यु का कारण बनती है। अतः, पशुपालक अपने-अपने पशुओं की उचित देखरेख और समय पर चिकित्सा कराकर इस बीमारी से होने वाली मौतों को कम कर सकते हैं और पशुओं में होने वाली उत्पादकता को बनाए रख सकते हैं।

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